bareli ka peda part - 4

बरेली का पेड़ा  - 4 bareli ka peda in hindi



पूर्णिमा की वो रात जिसमे निकला था एक चाँद  विजय को आज भी है याद

ठण्ड की रातें वाकई बहुत सुहानी हो जाती है जब वो कही दूर वादियों में गुजरती है।  विजय पहली बार किसी आलिशान होटल में रात्रिभोज करने वाला था मुंबई में तो अक्सर सड़क किनारे लगने वाले ठेलो से ही उसका काम चल जाता था , यहीं आकर उसने पावभाजी का स्वाद लिया जिसे मुंबई जैसे शहर में गरीबो का भोजन कहा जाता है। बरेली में बने अपने घर के खाने की याद विजय को हमेशा ही आती थी , मां के हाथो के बने गोभी के परांठे और चिली पनीर की सब्जी विजय के पसंदीदा व्यंजन है। गोभी के परांठो का तो विजय इतना शौकीन था की गर्मी के दिनों में भी कही न कहीं से गोभी  ढूंढ लाया करता था।


त्रिशा तैयार होकर होटल के रेस्टोरेंट में पहुँचती है ,वहाँ विजय पहले से ही उसका इन्तजार कर रहा होता है .त्रिशा को देखते ही वह सन्न रह जाता है वजह आज त्रिशा  आसमान से उतरी  किसी परी सरीखी लग रही थी वैसे तो त्रिशा सादगी वाले ही वस्त्र जैसे सलवार सूट ही पहनती थी। परन्तु आज उसने साड़ी पहनी थी।
काले  रंग की साडी ऊपर से खुले बाल और बिना किसी मेकअप के साक्षात् सुंदरता की देवी लग रही थी , विजय तो  उसे देखते ही रह गया। 

त्रिशा - क्या मैनेजर साहब आप तो आज बहुत ही स्मार्ट लग रहे है। 
विजय (थोड़ा शर्माते हुए) - नहीं मैडम आप तो स्वयं  किसी राजकुमारी से  कम नहीं लग रही है.
त्रिशा (मुस्कुराते हुए )- अच्छा जी , तारीफ़ करना तो कोई आपसे सीखे। 

 अब विजय क्या बताता की वाकई त्रिशा कितनी खूबसूरत लग रही  थी। अगर वो उसकी मालकिन नहीं होती फिर तो वो उसकी खूबसूरती का विस्तार  से वर्णन करता ,परन्तु वो भी अपने  कद को पहचानता था इसीलिए उसने बात को वही विश्राम दिया। पर त्रिशा तो आज जैसे विजय को परेशान करने के मूड थी। 

त्रिशा - बताइये मैनेजर साहब क्या खाएंगे आप। 

विजय - जो आपकी मर्जी मैडम। 

त्रिशा - फिर तो आज हम करेले के सूप से शुरुआत करते है (ऐसा कहते हुए वो विजय का चेहरे  वाले भाव को देखने लगती है )
विजय - थोड़ा सकुचाते हुए कहता है "जी मैडम " 
विजय को करेले से सख्त नफरत थी  उसका मानना था की  करेले जैसी कड़वी चीज सब्जी कहलाने लायक भी  नहीं है।यही सोचते हुए की आज तो वो बुरी तरह फस गया उसका चेहरा किसी बच्चे की तरह लगने लगा था। उसके मासूम चेहरे पर आने वाले भावो को देखकर त्रिशा खिलखिला के हस पड़ती है। लेकिन वो अभी विजय को किसी तरह की राहत देने के मूड में नहीं थी। 

विजय - क्या हुआ मैडम 
त्रिशा (हँसते हुए )- कुछ नहीं विजय जी करेला तो मुझे पसंद नहीं है , वो तो मैंने आपके लिए मंगवाया है ,मैं टमाटर के सूप से ही काम चला लूंगी। 

अब तो विजय का मासूम चेहरा नारियल के छिलके की तरह उतर चुका था। बड़ी मुश्किल  अपने चेहरे के भावो को छुपाते हुए वह कहता है की। 

-  मैडम मैं सोच रहा था की मैं भी टमाटर के सूप से ही शुरुआत करू क्या है की ठंड के मौसम में मुझे करेला सूट नहीं करता। गर्मी की सब्जी गर्मी में ही खाई जाये तो सेहत के लिए अच्छा रहता है।  

त्रिशा को खेती किसानी के बारे में रत्ती भर भी जानकारी नहीं थी उसे नहीं पता था की करेला गर्मी के मौसम की सब्जी है। अपनी हार होती देख वो कहती है   -    ठीक है हम दोनों ही टमाटर का सूप मंगाते है। 
क्रमश :...... 

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the burning city

जलता शहर  - jalta shahar


ये तेरे शहर मे उठता धुंआ सा क्यो है
यहाँ हर शक्स को हुआ क्या है
बह रही है खून की नदियाँ यहाँ
जाने वो कहता खुद को खुदा कहा है

हर हाथ मे खंजर
और वो खौफनाक मंजर
दिलो को दिलो से जोड़े
ना जाने वो दुआ कहा है

ना तू हिन्दू ना में मुस्लिम
फर्क बता दे लहू मे जो
उन जालिमो का काफिला कहाँ है

सब खेल है सियासतदारो का
और उनके वफ़ादारो का
हम और तुम तो शतरंज के प्यादे है
अभी और खतरनाक उनके इरादे है

अभी तो शुरु हुआ खेल है देखो
आगे किस किस का होता मेल है देखो
गाँव से लेकर शहर तक दिलो मे पीर है देखो
कभी जाति कभी आरक्षण कभी मजहब और धर्म के चलते तीर है देखो

आज बहा लो खून है जितना चाहे
छीन लो सुकून तुम जितना
वही लहू निकलेगा एक दिन अश्क़ो से तुम्हारे
वही सुकून तुम भी चाहोगे
पर कोई ना होगा पास तुम्हारे
जब तक सियासतदारो को पहचानोगे
जब तक इस खेल को जानोगे .. जब तक इस खेल को जानोगे.

ये तेरे शहर मे उठता धुंआ सा क्यो है ..........



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बरेली का पेड़ा  - 3 bareli ka peda



कहते है की  इंसान की अच्छाई उसके कार्यो  से परिलक्षित होती है और अच्छे इंसानो मांग हर जगह रहती है। 
बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा भर पेट भोजन हो जाने के बाद विजय उसे लेकर अपने साथ बाहर निकलता है वह सोचने लगता है की अभी तो मैंने इसकी मदद कर दी परन्तु इनका प्रतिदिन का गुजारा कैसे होगा विजय को विचारमग्न देख त्रिशा उससे पूछ बैठती है :

त्रिशा - "क्या सोच रहे है मैनेजर साहब  "
विजय -जी  कुछ नहीं मैडम 
 त्रिशा ( बुजुर्ग की तरफ इशारा करके बोलती  है की)  -  मैं सोच रही थी क्यों न इनकी काबिलियत के अनुसार इनको अपनी कोल्हापुर वाली फ़ैक्ट्री में कुछ हल्का सा काम दे दिया जाये जिससे की इनके दैनिक दिनचर्या का काम पूरा हो सके। 

विजय जिस बात को लेकर चिंता कर रहा था उसका समाधान इतनी आसानी से मिल जायेगा उसने सोचा भी नहीं था।  उसने मैडम का शुक्रिया अदा किया और बुजुर्ग से इस सिलसिले में बात करने को मुखातिब हुआ बुजुर्ग भी उनकी बाते सुन रहा था और उसके मन में  कही न कही उन दोनों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी इसलिए वो उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गया। 

विजय  -  मैडम मुझे तो मालूम भी नहीं था की आपका ह्रदय इतना विशाल है सत्य ही है आप अठावले जी जैसे महान इंसान की संस्कारवान पुत्री है। 

त्रिशा - नहीं मैनेजर साहब, गुण तो आपके अंदर भरे हुए है मुझे लगा आप भी आज की पीढ़ी की तरह ही व्यावसायिक रुख अख्तियार करते होंगे परन्तु आप के अंदर मानवता जैसे गुणों का समावेश भी है ये आज जानने को मिला। 

विजय - नहीं मैडम मैं तो एक अदना सा इंसान हूँ जिसे आपके पिता जी ने तराश के इस काबिल बनाया की वो भी समाज के लिए कुछ कर सके। 

त्रिशा , विजय की शैली से काफी प्रभावित होती है और  फिर वापस गाड़ी में बैठकर सभी  सफर के लिए निकल पड़ते है  .
विजय सोचता है की विदेश में रहकर भी इस लड़की के अंदर भारतीय संस्कार इस कदर भरे  हुए है और एक वे लड़किया है जो भारत में रहकर भी विदेशी संस्कृति को अपनाने में विशेष रूचि दिखाती है। भारतीय संस्कृति आज भारत से निकलकर विदेशो तक में फ़ैल रही है और लोगो को एक सुव्यवस्थित जीवनशैली प्रदान कर रही है वही पाश्चात्य संस्कृति अपनों से ही अपनों को दूर करने में लगी है स्त्रियों के लिए परिवार का अर्थ स्वयं के पति तक रह गया है।  रिश्तो की डोर कही न कही टूट रही है  और नए स्वार्थवादी रिश्तो का जन्म हो रहा है। जिससे मनुष्य सबकुछ होने के बावजूद अंदर से खोखला होते जा रहा है। 

ठण्ड के मौसम में गाड़ी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ती है रास्ते में ही विजय बुजुर्ग से उनका नाम और पता पूछता है उसे ताज्जुब होता है ये जानकर की ये मामूली सा दिखने वाला आदमी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रह चुका है जिसके दोनों लड़को ने उसे घर से निकाल दिया और सारे पैसे तथा संपत्ति पर अपना अधिकार कर बैठे।सरकार की तरफ से मिलने वाली पेंशन भी अभी कार्यालयों के चक्कर काट रही है। अभी वह और कुछ जानता  तब तक त्रिशा उसे बहार का मनोहारी दृश्य देखने को कहती है  सूरज भी अब ढलने ही  वाला था  की  वे कोल्हापुर में प्रवेश करते है।  गाड़ी एक शानदार होटल में जाकर रूकती है  जहा पहले से ही सबके कमरे आरक्षित  रहते है।

ड्राइवर और भीकू सामान उतारते है और बाकि लोग रिसेप्शन की ओर आगे बढ़ते है।सबके कमरे तो आरक्षित थे सिवा उन बुजुर्ग के इसलिए विजय उनको अपने कमरे में साथ ले गया।त्रिशा रात में भोजन साथ में करने की बात कहकर अपने कमरे में विश्राम करने चली गई। क्योंकि अभी तो वो रात बाकि थी जहाँ से  कहानी एक नया मोड़ लेने वाली थी। 

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reservation mistake of constitution

आरक्षण- संविधान की सबसे बड़ी भूल



reservation mistake of constitution

इधर बहुत दिनो से अनेक सरकारी परीक्षाओ मे फेल होते होते मन मे एक खिन्नता सी आ गई थी . लेकिन इस बात का विश्वास की अगली बार या एक बार भी परीक्षा मे पास हो गये तो आने वाली जिंदगी सुकून से निकल जायेगी और सारे दुख दर्द दूर हो जायेंगे एक परीक्षा और दे आते है . वैसे तो हम जाती को नही मानते लेकिन अलग अलग जातियों की जारी होने वाली कट – ऑफ लिस्ट और उनका अंतर कहीं ना कहीं जाति  व्यवस्था को लेकर समाज की और सरकार की मान्यता दर्शाता है क्या जनरल वालो के दिमाग मे अलग से कोई कम्प्यूटर की तरह् प्रोसेसर लगा होता है जिससे वी यदि 200 अंको की परीक्षा मे 189 लाये तो उनका सेलेक्शन अमुक परीक्षा के लिये होगा और पिछड़ी जाति का विद्यार्थी 150 और अति पिछड़ी जाति  का 100 नंबर लाने पर ही अपनी सीट सुरक्षित कर लेता है क्या इसको लेकर अन्य जातियो मे वैमनस्य नही उत्पन्न होता .
यदि यह मान्यता सही है तो क्या मायावती जैसी नेता के पास दिमाग की कमी है क्या अखिलेश यादव द्वारा चुनाव लड़ने पर 50000 वोट स्वतः ही बढ़ा देना चाहिये क्योंकि वो पिछड़ी जाती से है . यानी हमारा संविधान मानता है की अखंड भारत मे दिमाग के अनुसार लोगो का बंटवारा किया जाता है . संविधान मे यदि आरक्षण लागू है तो में साफ कहना चाहूंगा की उसका फार्मूला ही गलत है . में नही मानता ऐसे संविधान को जिसने आज जाती व्यवस्था को इतना बढ़ावा दे दिया की इंसान स्वार्थ हेतु एक दूसरे को मारने काटने पर उतारू है जहा पिछडेपन का करण आर्थिक स्थिति ना होकर मानसिक स्थिति है . हम खुद ही जातियो को हंसी का पात्र बनाते जा रहे है और उस वर्ग मे कुंठा को उपजा रहे है जो दिन रात मेहनत करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने की कोशिश करता है .
अब कुछ लोग कह सकते है की संविधान ने तो इसे 10 साल के लिये है लागू किया था पर राजनीतिक पार्टीयो ने वोट बैंक की राजनीति के लिये इसे आजतक जारी रखा तो इसमे भी कही ना कही संविधान की ही खामी है संविधान सभा मे जहा प्रत्येक कानून के निर्माण के समय उसकी विसंगतियो और भविष्य मे होने वाले दुरुपयोग पर विचार किया गया वही इस पर भी अवश्य विचार करना चाहिये था की राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु कुछ भी कर सकते है . 
अगर लाभ के लिये आरक्षण हेतु दंगो पर उतारू हुआ जा सकता है अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की गलत व्याख्या करके दंगे भडकाया जा सकता है तो मेरा सरकार से अनुरोध है की कृपया करके इनपर कारवाई ना की जाये क्योंकि हमारा संविधान भी मानता है की भारत मे कई जातिया ऐसी है जिनके पास दिमाग की कमी है हो सके इसी कमी की वजह से उनसे कुछ गलती हो गई हो . अगर उनके पास दिमाग की कमी नही होती तो आरक्षण हटाने का पहला प्रस्ताव उन्ही की तरफ से आता की इसे खत्म किया जाये हम किसी से कम नही है और आरक्षण और जाति को लेकर इस देश मे कोई राजनीति ना हो अगर करनी ही है तो केवल विकास और की राजनीति हो रोजगार की राजनीति हो शान्ती की राजनीति हो अहिंसा की राजनीति हो परंतु यह तभी संभव है जब हम तर्क के साथ सवाल पूछना शुरु करते है जब प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारो के प्रति जागरूक हो जब इस देश मे शिक्षा का स्तर नकल से अकल के लिये जाना जाये जब नाली से लेकर संसद मे दी जाने वाली गाली का हिसाब लिया जाये . जय हिन्द …

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