zindaagi ki saarthakta

जिंदगी की सार्थकता zindagi ki sarthakta




zindaagi ki saarthakta
zindaagi ki saarthakta 
उगते सूरज को देखते हुए ये ख्याल आता है की हम भी जगत मे इसी तरह आशा और उम्मीद के साथ प्रतिदिन उठतें है की आज कुछ अच्छा होगा . वही रोजमर्रा की आदते वही घर गृहस्थी की उलझाने ,शायद ज़िंदगी अब उतनी आसान नही रह गई जितनी हमारे पूर्वजो के लिये थी ,
ज़िंदगी मे स्थिरता नही रह गई बल्कि भागमभाग मची रहती है , अंधी प्रतिस्पर्धा है जिसमे हासिल कुछ नही होता बस हम ज़िंदगी जीना भूल जाते है , चेहरो पर मुस्कुराहट की बजाय भय,तनाव,और क्रोध की झलक ज्यादा देखने को मिलती है , सेवा भाव की जगह मेवा भाव की भावना लोगो के अंदर बसने लगी है . थोड़ी बहुत नाते रिश्तेदारिया और मित्रता तो केवल स्वार्थ की वजह से चल रही है. जाता हूँ कभी शमशान तो ज़िंदगी की सारी भागदौड और असलियत आंखो के सामने दिखती है पता नही ये नजारा और ए असलियत सबको क्यो नही दिखाई देती .
यही शाम है हमारी ज़िंदगी की हम भूल जाते है की सूरज की तरह हमको भी एक दिन ढलना है हमारा जन्म सिर्फ और सिर्फ मानवता को उसके शिखर पर ले जाना है, इसी के साथ जगत मे हमारी पहचान होती है और हम निरर्थकता से सार्थकता की तरफ बढते है .

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